सपनों के महल थे जो कभी
अब वो खण्डहर हो चुके हैं.....
राहगीर चलते-चलते बहुत थक गए थे......
यहीं कहीं राह में सो गए हैं.....
मंजिल तो अब दूर जैसे...... क्षितिज के परे है,
फिर भी उठ चले है वो सब....
पैरों के छाले भी फिर से हरे हो गए हैं.......
अपनी परछाई भी जैसे अब,
कहीं बहुत दूर, धुंदली सी दिखाई देती है......
कामयाबी अंधी सखी सी बनी बैठी है साथ में उसके,
जिसे नाकामी अब हरपल तकती रहती है...................मोहनिश...........!!!
अब वो खण्डहर हो चुके हैं.....
राहगीर चलते-चलते बहुत थक गए थे......
यहीं कहीं राह में सो गए हैं.....
मंजिल तो अब दूर जैसे...... क्षितिज के परे है,
फिर भी उठ चले है वो सब....
पैरों के छाले भी फिर से हरे हो गए हैं.......
अपनी परछाई भी जैसे अब,
कहीं बहुत दूर, धुंदली सी दिखाई देती है......
कामयाबी अंधी सखी सी बनी बैठी है साथ में उसके,
जिसे नाकामी अब हरपल तकती रहती है...................मोहनिश...........!!!
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