Sunday, June 24, 2012

सपनों के महल थे जो कभी

सपनों के महल थे जो कभी
अब वो खण्डहर हो चुके हैं.....

राहगीर चलते-चलते बहुत थक गए थे......
यहीं कहीं राह में सो गए हैं.....

मंजिल तो अब दूर जैसे...... क्षितिज के परे है,
फिर भी उठ चले है वो सब....
पैरों के छाले भी फिर से हरे हो गए हैं.......

अपनी परछाई भी जैसे अब,
कहीं बहुत दूर, धुंदली सी दिखाई देती है......

कामयाबी अंधी सखी सी बनी बैठी है साथ में उसके,
जिसे नाकामी अब हरपल तकती रहती है...................मोहनिश...........!!!

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