पर्वत
दूर तक देखने पर
कहीं एक तरफ नजर आते हैं पर्वत......!
विशाल ह्रदय से जैसे बुला रहें हों,
लगता है अभी हाँथ बढ़ा कर छु लूँ इन्हें.......!
मेरे अपने से लगते है कभी-कभी ये पर्वत,
जो एक अजीब सी ख़ामोशी लिए बैठे है.....
जैसे इंतजार कर रहें हो मेरे पहले बोलने का......
वो चाहते है की मैं उनपर विश्वास करूँ,
और चढ जाऊ उनपर......तब वे मुझे धकेल दें फिर से नीचे.....
और अहसास करवा दें ...
यही की कोई अपना नहीं है इस दुनिया में......
सभी पराये........दूर हैं....
और ढोंग रचाये बैठे है.....अपने होने का.............मोहनिश......!!
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